आख़िर क्या है नए कृषि कानून जिसका इतना विरोध हो रहा?


Published on: jan 22, 2021

By : Ashish Anand

सितंबर 2020 में संसद भवन 3 नए या संशोधित कृषि कानूनों को पास करती है और उसी समय से शुरू हुई ये घमासान आज तक जारी है। आज विगत दो महीने से दिल्ली में किसान प्रदर्शन कर रहे हैं जिसमें मुख्यत पंजाब और हरियाणा के हैं। सरकार और किसान संगठनों के बीच 10 राउंड से ज्यादा बातचीत हो चुकी है पर कोई ठोस निर्णय अभी तक नहीं निकल पाया है।

इस लेख के माध्यम से आज मैं इन तीनों कानून के हरेक पहलुओं पर विस्तार से चर्चा करूंगा। लेख के आख़िर तक आपको सभी शंकाओं का जवाब मिल चुका जाएगा।

आखिर क्या है ये नए कानून? एमएसपी क्या होता है? किसानों को इस से क्या आपत्ति है? किसानों को डर क्यों है कि वो प्राइवेट कंपनियों के चंगुल में फंस जाएंगे? एनडीए सरकार क्या तर्क दे रही है? क्या सरकार को कानून वापस ले लेना चाहिए? ऐसे तमाम प्रश्नों से मैंने पर्दा उठाने का प्रयास किया है।

पहले कुछ तथ्यों पर नजर डालते हैं:

▪️ भारत की कुल आबादी का 60 प्रतिशत हिस्सा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जीविकोपार्जन के लिए कृषि पर निर्भर है।
▪️ भारत की जीडीपी में 18 प्रतिशत कृषि का योगदान है।
▪️ भारत की कुल किसानों में से 80 प्रतिशत किसान छोटे और सीमांत किसान कहलाते हैं।( जिनके पास कुल भूमि 2 हेक्टेयर/ 5 एकड़ से कम है)
▪️ भारत में मात्र 6% किसान अपनी उपज को एमएसपी पे बेच पाते हैं।

एमएसपी क्या है?

न्यूनतम सर्मथन मूल्य वह कम से कम कीमत है जिस पे सरकार किसानों से फसल खरीदती है। यह फसलों के दाम की गारंटी है। वर्तमान से सरकार 23 फसलों की एमएसपी तय करती है। पर हकीकत में बस 3 से 4 फसलों पर किसान को एमएसपी मिल पाता है। बाकी किसी फसल की सरकारी खरीद नहीं हो पाती है तो एमएसपी भी नहीं मिल पाता है।

तीनों नए कानून के प्रावधानों पर एक नजर:-

(1) The Farmers’ Produce Trade and Commerce (Promotion and Facilitation) Act
[कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) अधिनियम]

1970 में किसानों पर होनेवाले शोषण को रोकने के लिए सरकार ने ‘कृषि उपज विपणन समिति अधिनियम’ (एपीएमसी एक्ट) लागू किया था। इस के अंतर्गत किसानों की उपज अनिवार्य रूप से केवल सरकारी मंडियों के परिसर में खुली नीलामी के माध्यम से ही बेची जाती है। मंडी कमेटी खरीददारों, कमीशन एजेंटों और निजी व्यापारियों को लाइसेंस प्रदान कर व्यापार को नियंत्रित करती है। FCI- food corporation of India के द्वारा एमएसपी (minimum support price) पर कृषि उपज की खरीदारी सरकारी मंडियों में ही होती है।

अब 2020 वाले नए कानून में कि कृषि उत्पादों को मंडी परिसर में ही बेचना है, इस अनिवार्यता को खत्म कर दिया गया। किसी किसी राज्य जैसे बिहार में पहले से ही मंडी के बाहर खरीद बिक्री का प्रचलन है।

इससे होनेवाले फायदे:-

▪️ किसान देशभर में किसी भी बाज़ार में अपनी उपज बेच सकते हैं, ऑनलाइन ऑफलाइन कहीं भी बेच सकते हैं। (एक देश एक बाज़ार )
▪️ यह कानून मंडी के बाहर की गई खरीद बिक्री पर राज्य सरकार को टैक्स लगाने से रोकता है।
▪️ सरकारी मंडियां बंद नहीं हो रही है, बस मंडियों के फसल खरीद का जो एकाधिकार था वो बंद हो रहा।
▪️ किसान के पास यह विकल्प रहेगा कि जो ज्यादा दाम दे उसको वो फसल बेचें, चाहे वो सरकार हो या निजी क्षेत्र।
▪️ सरकार के तरफ से बार बार आश्वासन दिया जा रहा है कि एफसीआई के द्वारा मंडियों में भी न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर सरकारी खरीद वाली प्रणाली चालू ही रहेगी। बस किसान पे निर्भर रहेगा कि वो मंडी में बेचें या मंडी के बाहर।

इससे नुक़सान:

▪️️ किसान चाहते हैं कि मंडी के बाहर भी यदि किसी प्राइवेट प्लयेर को वो बेचते हैं तो वहां भी एमएसपी का प्रावधान होना चाहिए।
क्यूंकि किसानों को डर है कि एक दो साल तक अच्छे दाम देकर प्राइवेट कंपनियां उन्हें अपने गिरफ्त में ले लेगी उसके बाद मनमाने कीमत पर खरीद करेगी। जैसे टेलीकॉम कंपनी जियो ने किया है।
▪️ किसान चाहते हैं कि इस पूरे प्रकरण में सरकार, प्राइवेट कंपनियों को सीधे तौर पे नहीं शामिल करे, बल्कि पहले सरकार किसानों से खरीदे और फिर वो कंपनियों को बेच दे। वो चाहते हैं कि सरकार मंडियों की व्यवस्था को और अच्छी करे, अभी वर्तमान में बस 7000 के आसपास मंडियां है, जिसको और बढ़ाने कि जरूरत है।
▪️ कानून आने से पहले की सरकारी आंकड़े के अनुसार एमएसपी पर फसल बेचने वाले किसानों को संख्या बस 6 प्रतिशत है। एक तो ऐसे ही एमएसपी खत्म होता दिख रहा है अब बचे हुए 6 प्रतिशत को भी सरकार मंडी से बाहर भेजने के लिए ये नए कानून ला रही है, फिर कैसे मौखिक सांतवना पर कैसे विश्वास किया जा सकता है।
▪️ नए कानूनों में लिखित रूप से में कहीं भी एमएसपी और मंडी सिस्टम जारी रहने का प्रावधान नहीं है। भविष्य में मौखिक बयानों को साक्ष्य मानकर कोर्ट में केस नहीं किया जा सकता।

(2) The Essential Commodities (Amendment) Act
[आवश्यक वस्तु (संशोधन) अधिनियम, 2020]
एसेंशियल कमोडिटी एक्ट 1955 में लागू हुआ था। इसका उद्देश्य उपभोक्ताओं तक उचित मूल्य पर आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता सुनिश्चित करना था। इस कानून के अनुसार आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन, मूल्य और वितरण, सरकार के निर्देशन में होगा, जिससे कंज्यूमर को बेईमान व्यापारियों से बचाया जा सके। आवश्यक वस्तुओं की सूची में खाद्य पदार्थ, फर्टिलाइजर्स (उर्वरक), मेडिसिन (औषधि), पेट्रोलियम शामिल थे।
23 सितंबर 2020 को पारित इसी कानून के संशोधन विधेयक में आवश्यक वस्तुओं की सूची से अनाज, दलहन, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज और आलू को हटा दिया गया है।

इसके परिणास्वरूप अब:-

▪️ इन वस्तुओं के व्यापार के लिए लाइसेंस लेना जरूरी नहीं होगा।
▪️ जमाखोरी, कालाबाजारी, कितनी भी मात्रा में एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाने, जैसे प्रतिबंध अब हट गए।
▪️ युद्ध, अकाल या किसी असाधारण परिस्थिति में सरकार के पास प्रतिबंध लागू करने की शक्ति रहेगी।
▪️ जब किसी उत्पाद की कीमत दोगुनी बढ़ जाएगी, तब सरकार मोर्चा संभालेगी और कीमत और भंडारण पर अंकुश लगाएगी।

इसके फायदे:

▪️ कोल्ड स्टोरेज और फूड प्रोसेसिंग यूनिट में निवेश बढ़ेगा। इन्फ्रास्ट्रक्चर बढ़ेगा, फसलों के खराब होने कि आशंका कम रहेगी।
▪️ भंडारण(स्टॉक) की कोई लिमिट नहीं रहने के कारण कोई भी कंपनी या व्यापारी किसानों से जितना चाहे उतना उत्पाद खरीद सकती है। इससे फसल खरीद में कॉम्पटीशन (प्रतिस्पर्धा) आयेगी और किसानों को अच्छी कीमत मिलेगी।
▪️ कृषि क्षेत्र में निजी और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को बढ़ावा मिलेगा। इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित करने के लिए प्रयाप्त फंड मिल पाएगा। कृषि का आधुनिकीकरण होगा।

इससे होनेवाले नुकसान:- 

▪️ कृषि बाज़ार में घुसने के लिए लाइसेंस लेना जरूरी नहीं रहेगा, तो फ्रॉड का ख़तरा बढ़ेगा।
▪️ आलू, प्याज, दलहन, अनाजों की महंगाई बढ़ेगी। सरकार ने कानून में खुद लिखा है कि वस्तुओं का दाम दोगुनी होने पर ही वह कोई कार्यवाही या प्रतिबंध लागू करेगी।
▪️ किसी आपातकाल के समय सरकार इस कानून के नियमों पर प्रतिबंध लगा सकती है, लेकिन ये कानून खुद ऐसे समय लागू किया जा रहा है जब corona lockdown के कारण गरीबी, बेरोजगारी चरम पर है। लोग अपनी मौलिक जरूरतों को पूरा करने के लिए भी नहीं कमा पा रहे हैं।
▪️ कानून में यह संशोधन जमाखोरी और काला बाजारी को कानूनी मान्यता दे रही है।
▪️ किसानों के साथ साथ आम जनता, गरीबों और मिडिल क्लास लोगों के लिए भी यह संशोधित कानून महंगाई का कारण बनेगा।

(3) The Farmers (Empowerment and Protection) Agreement of Price Assurance and Farm Services Act
[ कीमत आश्वासन एवं कृषि सेवाओं पर करार (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) अधिनियम ]

यह कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से संबंधित है। यह कानून फसल की बुवाई से पहले ही किसान को अपनी फसल को तय मानकों और तय कीमत के अनुसार बेचने का अनुबंध(कॉन्ट्रैक्ट) करने की सुविधा प्रदान करता है।

इस कानून से होनेवाले फायदे:-

▪️ फसल बोने से पूर्व ही किसान किसी भी संबंधित कंपनी से कॉन्ट्रैक्ट कर सकते हैं कि हम आपको इतने रुपए के हिसाब से उत्पाद बेचेंगे।
▪️ किसान को पहले से पता रहेगा कि आखिर में कितना रुपया आने वाला है, तो कोई भी खर्च जैसे खाद – बीज, सिंचाई, के लिए कर्ज़ लेने में भी किसान कोई संकोच नहीं करेगा।
▪️ फसल कटने और कंपनियों को ले जाने के बाद 3 दिन के अंदर किसान को पेमेंट कर देना है।
▪️ किसानों को फसल बेचने के लिए परेशान होकर घूमना नहीं पड़ेगा, खरीददार खुद चलकर खेत तक आयेगा और सारा उत्पाद कलेक्ट कर ले जाएगा।

इस कानून में क्या दिक्कत है:-

▪️ किसानों को डर है कि कॉन्ट्रैक्ट के पूरे प्रकरण में उनका पक्ष कमजोर रहेगा। निजी कंपनियां काफी ताकतवर होती है और दूसरी तरफ छोटे किसान जिनके पास खुद 2 हेक्टेयर से भी कम जमीन है।
▪️ किसानों को लगता है कि शुरू के 2-3 साल तक कंपनियां लुभावने कीमत देकर उनको अपने वश में कर लेगी और उसके बाद कम्पनियों के दवाब में कीमत तय होगा तब चाह कर भी किसान कुछ नहीं कर पाएंगे।
▪️ किसानों को लगता है कि 2 से 3 साल तक उपज पर सरकारी खरीद की तुलना में प्राइवेट कंपनी ज्यादा रुपया देंगे तो लगभग किसान प्राइवेट वाले कॉन्ट्रैक्ट में शामिल हो जाएंगे, और फिर सरकार मंडियों को बंद कर देगी।
▪️ गुजरात के किसान बनाम पेप्सिको(आलू चिप्स वाली कंपनी) के बीच वाले केस में पेप्सिको ने कहा था कि ये कोई खास किस्म के आलू का पेटेंट मेरे पास है, किसान बस पेप्सिको कंपनी के लिए ही ये आलू उगा सकता है। जो किसान कंपनी से कॉन्ट्रैक्ट में नहीं है वो ये आलू नहीं उगा सकता। और कुछ किसानों के ऊपर कंपनी ने जुर्माना भरपाई का केस कर दिया था।

अब इस वाले एक्ट से भी किसानों को ये डर हो रहा है, कहीं जबरन किसानों को कंपनियों के लिए काम न करना पड़े। और जमीन हाथ से जाने का भी डर हो रहा है।
▪️ इस कानून में विवाद को सुलझाने का जो तरीका है वहां भी किसानों का पक्ष हमेशा कमजोर ही रहेगा।


कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में होने वाले विवाद को सुलझाने का तरीका:


एक बोर्ड का गठन कर विवाद को सुलझाया जाएगा। इस बोर्ड का सबसे पावरफुल अधिकारी एसडीएम(सब डिवीजन मजिस्ट्रेट) होंगे। एसडीएम द्वारा पारित आदेश से जो पक्ष सहमत नहीं होंगे वो 30 दिन के भीतर कलेक्टर(डीएम) के पास अपील कर सकते हैं।
कहने का तात्पर्य ये है कि किसानों के कोर्ट जाने का अधिकार छीन लिया गया है। किसानों को डर है कि एसडीएम या डीएम हमेशा कंपनियों के पक्ष में ही फैसला रखेंगे। कंपनियों के पास अच्छे अच्छे वकील होते हैं जो एसडीएम के समक्ष किसानों की बोलती बंद कर देंगे। कंपनियां घुस देकर अपने पक्ष में फैसला करवा लेगी। कंपनियां लोकल नेताओं से संपर्क करेगी, और नेताजी अधिकारियों को ट्रांसफर का डर दिखाकर फैसला कंपनी के पक्ष में करवा लेंगे। 80 प्रतिशत छोटे किसान हैं, जिनके पास न ज्यादा संसाधन है, ना ही वो कानूनी भाषा समझते हैं, न ही अपना पक्ष मजबूती से रखने के लिए अच्छे कानूनी सलाहकार को रख सकते हैं। ऐसे में सारे निर्णय बड़े कंपनियों के झोले में ही जाएंगी।

निष्कर्ष:-

इस पूरे प्रकरण में सरकार की मंशा संदेहास्पद है। जून के महीने में जब सम्पूर्ण विश्व महामारी से परेशान था तब सरकार ने अध्यादेश के जरिए तीनों कानून को रखा।अध्यादेश क़ानून बनाने का आदर्श तरीका नहीं है, क़ानून बहस के जरिए लाया जाना चाहिए क्योंकि उससे उसकी कमियां दूर करने में मदद मिलती है। सरकार का मन कृषि क्षेत्र को आत्मनिर्भर बनाने का है। लेकिन आत्मनिर्भर बनाने का मतलब ये तो नहीं हुआ कि सरकार अपनी सपोर्ट हटा कर प्राइवेट सेक्टर के हाथ में डाल दे। प्राइवेट कंपनियों का एकमात्र उद्देश्य होता है लाभ कमाना, अभी जो 80 प्रतिशत छोटे किसान हैं वो इन कंपनियों के सामने नहीं टिक पाएंगे। कोई भी किसान हो 2 महीने से दिल्ली में प्रदर्शन कर रहा है वो बेवकूफ नहीं है। यदि ज्यादा पैसा दिखता तो कोई क्यों प्रदर्शन करता। एनडीए सरकार खुद कह रही है कि बिहार में 2006 में ही मंडी या एपीएमसी वाला सिस्टम खत्म हो गया था। उसके बाद बिहार के किसान और गरीब होते चले गए, बहुत किसान पलायन को मजबूर हुए। किसानों को अब एमएसपी से कम कीमत कर फसल बिचौलियो को बेचना पड़ता है। किसानों की हालत में कोई सुधार नहीं हो सका।
कृषि का वाणिज्यीकरण होना तो आवश्यक है लेकिन सरकार के नजर के नीचे होना चाहिए। कंपनियों के साथ एग्रीमेंट हो या विदेशी कंपनियों का कृषि क्षेत्र में प्रवेश, ये सरकार के दिशा निर्देश में होना चाहिए। यदि सारे सेक्टर से सरकार पल्ला झाड़ लेगी तो फिर सरकार का काम ही क्या रह जाएगा।

क्या आंदोलन जायज़ है?

यदि इतना लंबा आंदोलन जायज़ नहीं होता तो सुप्रीम कोर्ट आंदोलन रुकवा सकती थी। पर कोर्ट पूरे मामले पर नजर रखे हुए है और सरकार की नीतियों का विरोध करना हर नागरिक का अधिकार है।

अब क्या होगा:-

सरकार को फिलहाल कानून वापस ले लेना चाहिए और नए तरीके से ग्राउंड जीरो की हकीकत का रिसर्च करवा कर नए प्रावधानों के साथ कानून बनाना चाहिए।
किसान को भी जिस कानून में जो समस्या दिख रही उसे हाईलाइट करना चाहिए न कि पूरे कानून को ही। क्या किसान नहीं चाहते कि कृषि से जुड़ा कोई भी नया कानून बने? क्या बदलते दुनिया के साथ खेतीबाड़ी को अपडेट नहीं करना चाहते? नहीं न, फिर किसानों को भी आगे आना होगा, विरोध से ऊपर उठकर बात करना होगा, अभी जैसा खेती वो कर रहे हैं उस में क्या दिक्कत आ रही वो सरकार के सामने रखना होगा, किसानों को भी संसद और सर्वोच्च न्यायालय पर विश्वास करना होगा। कोई भी सरकार देश की 60% आबादी के अहित में कोई कानून नहीं बना सकती, खास कर के भारत जैसे देश में जहां जनता के वोट से ही सरकार बनती है।
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जय हिन्द🇮🇳


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