हिंदी न्यूज चैनलों पर मेरे विचार!

भारतीय मीडिया पर मेरे विचार.. 

मीडिया क्या है? क्या होता है? कैसा होना चाहिए? लोकतंत्र में इसकी क्या विशेषता एवं जरूरत है? ऐसे प्रश्नों का जवाब आपको गूगल पर मिल जाएगा। तो उसको छोड़िए यहां।

जो लोग रोज़ टीवी देखते होंगे वो 21वीं शताब्दी की मीडिया के करतूतों से अवश्य वाकिफ होंगे.. फिर भी आप में से बहुत को आजतक, रिपब्लिक या ज़ी न्यूज़ या और कोई चैनल पसंद होगा। 
( नोट: इस पूरे लेख में मीडिया से मेरा तात्पर्य वैसी हिन्दी चैनलों से है जो आपको सबसे ज्यादा दिखता होगा, मुख्यतः आज तक, ज़ी न्यूज़, न्यूज़ 18, न्यूज़ 24, न्यूज़ नेशन, एबीपी न्यूज, एनडीटीवी, इंडिया टीवी, आदि)
अंग्रेज़ी पत्रकारिता से जहां तक मैं वाकिफ हूं, तो वो ठीक ठाक है, हिंदी का प्रिंट मीडिया (अख़बार) भी ठीक है। 

हिंदी मीडिया के लिए आप बिकाऊ, दलाल, भक्त, गोदी, जैसे शब्दों का प्रयोग देखते होंगे फेसबुक सब पे, मेरे विचार में ये सारे शब्द सही हैं। 

Corona संकट, मार्च महीने से मेरा लगाव ज्यादा रहा टीवी से। मार्च के महीने में सारे न्यूज़ वाले दिन रात corona की न्यूज़ दिखाते थे, नए रिसर्च बताते थे, ब्रिटेन, स्पेन जैसे देशों की हालात दिखाते थे। ताली थाली दीवाली वाले कार्यक्रम जो कि माननीय प्रधानमंत्रीजी के आग्रह पर देशवासियों ने मनाया उसकी सफलता में भी मीडिया का योगदान रहा। Corona वॉरियर्स को सम्मान और सुरक्षा दिलाने में मीडिया ने योगदान किया है। 
 प्रवासी मजदूरों के पलायन वाले मुद्दे से corona काल में मीडिया का टीआरपी कार्यक्रम शुरू हुआ था। वो वाकई सही मुद्दा था, तमाम वैसे पत्रकारों ने भी केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा किया था जीनपे हमेशा बिकाऊ होने या बीजेपी समर्थक होने का आरोप लगता रहा है। देर से ही सही सरकार की झूठी वादों के बाद मजदूरों को अपने गांव की जमीन नसीब हुई थी। 

उसके बाद शुरू हुआ जमाती जमाती का हल्ला मचाना। खुलेआम किसी ख़ास समुदाय के लोगो को corona फैलाने वाला करार दे दिया गया। जिसमे कुछ विदेशी भी थे। हाल ही में सरकार ने बहुतों को वापस भेज दिया है। फिर पालघर मौब लिंचिंग का हल्ला शुरू हुआ। बहसों में देखकर लगता था कि बहुत जल्द साधुओं को न्याय मिलेगा। लेकिन अचानक से 4,5दिन के बाद बात दब गया। फिर चीन चीन गलवान घाटी लद्दाख शुरू हुआ। बड़े बड़े बहस के आयोजन हुए। तमाम सवाल हुए, माकूल जवाब भी मिले लोगों को। हमारे जवान भी शहीद हुए थे। बड़े बड़े पत्रकारों ने शहीद जवानों के लिए killed शब्द का भी प्रयोग किया। फिर मंदिर निर्माण की बेला शुरू हुई और सारे न्यूज़ कवरेज जय श्री राम पर सिमट कर रह गए। अभूतपूर्व आयोजनों का गवाह हुआ सम्पूर्ण भारतवर्ष। सुशांत केस भी तब तक रोज़ का हिस्सा बन ही चुका था। सवाल बहस और विचार 6-7 घंटा रोज़ चलते ही थे। फिर 2,3 दिन राफेल चला। अच्छे खासे खूबियां वाले फाइटर जेट भारत ने खरीदे। 
ऐसे अच्छे न्यूज़ को लंबा कवरेज मिलता गया। 
एक बड़ी खासियत ये है न्यूज़ चैनलों में कि वो जिस किसी मुद्दे को पकड़ती है उसे इतना ज्यादा दिखा देती है कि लोग ऊब जाते हैं, और फिर उसको छोड़ने के बाद ऐसा छोड़ती है कि वापस पीछे मुड़कर भी नहीं जाती। जैसे आप पालघर, जमाती वाले मैटर को ही देख लें। ट्विटर पर तो आज भी पालघर जांच के लिए सीबीआई मांग की ट्रेंड चलती है लेकिन टीवी स्क्रीन से एक बार गायब होने के बाद दुबारा उस घटना का अपडेट नहीं दिखता। मौलाना साद गिरफ्तार हो गया?? पूछता है भारत, लेकिन 2-4 दिन के बाद भारत अपना मुद्दा बदल लेता है और फिर 4 महीने तक एक भी अपडेट नहीं दिखाता। एक दिन मोदीजी ने कह दिया कि न कोई सीमा में घुसा है और न ही हम घुसे हैं किसी में। उसके बाद चीन वाली न्यूज़ आज तक नहीं दिखी। सुशांत केस ने जैसे मीडिया को पूरी तरह से एकतरफा बना दिया। हां सीबीआई मांग जायज थी लेकिन दिन के 12 घंटे वही न्यूज़ लगातार 1 महीने तक दिखाना कहां तक जायज है? बाकी देश में क्या चल रहा है क्या शिक्षा नीति बना, किसको एग्जाम से दिक्कत है, कहां बाढ़ आया हुआ है, कहां लोग नौकरी और परीक्षा के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं, इस से टीवी चैनलों को कोई मतलब ही नहीं रह गया है। रिया अा रही है रिया जा रही है, रिया काला कपड़ा पहनी, रिया बोली, रिया नहीं बोली, तैमूर का संपत्ति बटने वाला है, लॉकडॉउन के शुरू में ही विराट आपदा को अवसर में बदल दिए, न जाने क्या क्या क्या.. 
एक बात तो तय है कि most viewed news channels को देख के यह लगता है कि सारे प्रोग्राम्स fully planned तरीके से चलाए जाते हैं, जनता को बांध के रख दिया जाता है कुछ ही घटनाओं में। 
शिक्षा, स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था, रोजगार, ऐसे मुद्दे तो 100 खबर वाले हेडलाइन से भी गायब रहते हैं। 
हिन्दू मुस्लिम, मंदिर मस्जिद जैसे मुद्दों पर बेतुके बहस का आयोजन होता है और जनता को आराम आराम से बेवकूफ बनाया जाता है। 
इन सारे बहसों में एंकर कि भूमिका एकदम से निष्पक्ष नहीं होती। एंकर हमेशा किसी एक पक्ष को पकड़े रहते हैं, और दूसरे पक्ष वाले यदि सही भी बोलते हैं तो उनकी बातों को दबा दिया जाता है। 
एक समय था जब ट्विटर ट्रेंड करने पर, मीडिया में खबर दिख जाने पर, तुरंत एक्शन लिया जाता था, आज सरकार को कोई तकलीफ़ ही नहीं है कि जनता किस मुद्दे पर फैसला चाहती है, जनता का क्या विचार है, आदि आदि। शिक्षा, रोजगार, किसी नीति का समर्थन या विरोध के संदर्भ में किया गया ट्विटर ट्रेंड भी निरर्थक सिद्ध हो रहा है। 
पॉल की बात करते हैं। पॉल(वोटिंग) करने से पहले न्यूज़ चैनल वाले खुद सोच लेते हैं कि इसका परिणाम ये आना चाहिए, और यदि जन समर्थन उसके विपरीत मिलता है तो कई बार पॉल डिलीट होते हुए या निर्णय का घोषणा न करते हुए मैंने खुद देखा है। 
स्टिंग ऑपरेशन जैसे शब्द तो अब मीडिया से गायब ही हो गए हैं। 6 महीने साल भर में मुश्किल से 1-2 स्टिंग ऑपरेशन हो जाता है वो भी बेफिजूल मुद्दों पे। 
टीवी चैनल पर डिबेट एकतरफा होता है क्यूंकि एंकर खुद एक पक्ष से होते हैं। पार्टी प्रवक्ता आते हैं, अपना पक्ष रख के निकल जाते हैं, पूरा देखने पर पता चलेगा कि कोई conclusion निकला ही नहीं। 
मीडिया आजकल सवाल करना तो एकदम से बंद कर दी है। और करे भी क्यूं? सरकार से जवाब ही नहीं आता। 
देश की मीडिया इस कदर valueless हो गई है कि मोदीजी 6 साल से पीएम हैं लेकिन मुश्किल से बस 1 बार प्रेस कॉन्फ्रेंस किए हैं। बाकी चीजों में अमेरिका से तुलना करने वाले लोग कभी ये भी देखें कि ट्रंप सप्ताह में 1 बार खुद मीडिया को संबोधित करते हैं, मीडिया के प्रश्नों का जवाब देते हैं। प्रधानमंत्रीजी मीडिया का बॉयकॉट कर ही चुके हैं, बस भोले भाले जनता को करना बाकी है। 
रवीश कुमार, पुण्य प्रसून बाजपेई जैसे पत्रकार आर्थिक हालातों कि समीक्षा करते हैं तो उन्हें ट्रॉल किया जाता है। उनके विस्लेषण का आधार भी सरकारी रिपोर्ट ही रहता है लेकिन बाकी चैनल आपको वो रिपोर्ट नहीं दिखते हैं और आपको लगता है कि रवीश कुमार का काम ही है बस मोदी सरकार को गाली देना। देश को कोसना। 
बस सामाजिक मुद्दे से देश नहीं चलता, देश चलता है मजबूत अर्थव्यवस्था से, सही फैसलों से, और मीडिया का यह भी दायित्व है कि आर्थिक, रोजगार से संबंधित खबरें पर भी बहस करे, मंथन करे। खुद के द्वारा पहले कभी दिखाए गए न्यूज़ को फिर से रिव्यू करे और सरकार से सवाल करे कि आज इस निर्णय के इतने दिन बीत चुके हैं, और क्या प्रोग्रेस किया गया इतने दिनों में।
मिडिल क्लास परिवारों के लोग जब दैनिक भागदौड़ से फुर्सत में आते हैं तो धार्मिक, सामाजिक, क्राइम से जुड़े 100 खबर वाली हेडलाइन देख कर खुश हो जाते हैं। 

एक बात अच्छी दिखती है कि युवा वर्ग जागरूक हो रहे हैं। वो टीवी पर न्यूज़ देखने से ज्यादा प्रिफरेंस सोशल मीडिया जैसे फेसबुक इंस्टाग्राम ट्विटर पर से रहे हैं। किसी भी मुद्दे पर लोगों का रुख़ जानना है तो कमेंट सेक्शन देखा कीजिए। दूसरों का भी रिप्लाइ देखिए खुद का भी लिखिए। लेकिन फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म पर बहुत अफवाह भ्रामक और ब्रेनवाश करने वाली खबर भी रहती है। इतिहासिक घटनाओं वाले लेखों पर जल्दी विश्वास नहीं करना चाहिए। इतिहास को तोड़ मरोड़ के पेश किया जाता है। 
अर्थ से ही सामर्थ आता है, आर्थिक घटनाओं को इग्नोर नहीं कीजिए। हिंदी चैनल आपको नहीं दिखाएंगे ये खबर, आपको खुद खोज के देखना होगा। 
खबरें देखिए लेकिन खुद में विश्लेषण करते रहिए की क्या सही है और क्या गलत। जातिवाद, सांप्रदायिक हिंसा, धर्म मजहब पर भेदभाव, जैसे मुद्दों को मीडिया ही बढ़ावा देती है। 

पिछले 2-3 महीने में सबसे ज्यादा देखे जाने वाले हिंदी चैनल की बात करें तो उसपे
Education related issues & solutions,Healthcare infra development,Farmers issues & solutions,Improving growth of deprived section of society,
Social welfare & environmental issues जैसे मुद्दों पर महीने भर में 1 बहस भी नहीं हो पाया है। 

सुशांत को न्याय मिलना बिल्कुल जरूरी है, और सीबीआई अपना काम बखूबी निभा रही है, लेकिन मीडिया का रोल बिल्कुल nonsense वाला है। रिया के पीछे हाथ धो के पड़ना, बयान देने के लिए जबरदस्ती करना, गवाहों को मानसिक रूप से प्रताड़ित करना कहां तक सही है? मीडिया स्वतंत्र है, लेकिन किसी की निजी जिंदगी में हस्तक्षेप करने वाला कौन होता है? 
देश की 130 करोड़ लोगो की मन की बात को मंच दीजिए, छुपे हुए प्रतिभा को ऊपर ले जाइए, nation first, organization next, self last, की भावना पर काम कीजिए, सभी sectors की न्यूज़ को बराबर कवरेज दीजिए।
एक बार बिहार सीएम नीतीश जी बोले थे कि आईएएस को कोई जबरदस्ती नहीं करता आईएएस बनने के लिए, लेकिन अपने सपने पूरा करने के लिए आईएएस बने है तो जो code of conduct है उसके दायरे में रह कर काम कीजिए। ठीक वैसे ही आप पत्रकार बने हैं तो मीडिया को सही दिशा में ले जाइए। भारत जैसे देश में जब इतना ज्यादा स्वतंत्रता मिला है अभिव्यक्ति का तो उसका सार्थक उपयोग कीजिए। 

बहुत भाषण लिख दिया शायद। कृपया कर के किसी भी लाइन का प्रूफ नहीं मंगिएगा। बहुत पॉइंट छूटा भी होगा। कभी कभी गुस्सा आता है तो लिखने का मन करता है। आप भी blogger पर लिख सकते हैं। पहले तो नीचे कमेंट कीजिए, अपना विचार रखिए, शेयर भी कर सकते हैं लिंक बना के। 
धन्यवाद


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